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हमारे छोटे छोटे प्रयास भी राष्ट्र को सशक्त और मजबूत बनाते हैं

भारत एक्सप्रेस के सभी साथियों को स्वतंत्रता दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं। हम सभी भारत एक्सप्रेस परिवार के सदस्य हैं और कंधे से कंधे मिलाकर काम कर रहे हैं। इस स्वतंत्रता दिवस की थीम है : 'राष्ट्र प्रथम सदैव प्रथम' ; जब ये थीम मैंने सुनी तो बड़ी खुशी हुई, क्योंकि इसी भावना के साथ अपनी कंपनी का नाम भारत शब्द से रहेगा, भारत एक्सप्रेस कहीं न कहीं बहुत मजबूती से दिखाता है। सत्य, साहस, समर्पण ।

मेरा सहारा इंडिया परिवार में लंबा समय गुजरा। मैं आज भी खुद को उस परिवार का सदस्य मानता हूं। क्योंकि परिवार के मुखिया सहाराश्री का स्नेह-प्रेम आज और इस वक्त भी अविरल मेरे साथ है। जैसे उनके साथ मैं रात-दिन काम करता था, इस मंच से उनको भी याद कर रहा हूं। 'भारत पर्व' मनाने का संस्कार सहाराश्री ने ही दिया।

अर्द्धनारीश्वर

अन्य धर्मों में ईश्वर की कल्पना पुरुष के रूप की गई लेकिन सनातन धर्म इकलौता है, जहां ईश्वर की कल्पना अर्द्धनारीश्वर के रूप में की गई। जहां ईश्वर आधा पुरुष है और आधा नारी है। बाईबल में इस बात का उल्लेख है कि जब ईश्वर ने आदम को बनाया तो वो बड़ा मायूस और गुमसुम रहने लगा। फिर, उसने आदम की पसली से तोड़ कर स्त्री की रचना की।


दूसरों के जीवन में सूख

प्रधानमंत्री जी को सुन रहा था, उनकी बातों में एक बात मुझे बहुत महत्तवपूर्ण लगी। अपने शब्दों में कहता हूं-अगर राष्ट्र को मजबूत और सशक्त बनाना है तो कोई आवश्यक नहीं है कि बहुत बड़ा काम करें, हम जहां हैं, जिस हैसियत में हैं, एक बात ध्यान रख कर काम करें, जो काम किया जा रहा है वो दूसरे के जीवन में सुख ला रहा है, अच्छा महसूस करा रह है। अक्सर देखा गया है कि लोग अपने पास के संबंधों में ही दुख देना शुरु कर देते हैं। सुख देना क्या है? अगर रास्ते में कांटा पड़ा है तो रुक कर उसे रास्ते से हटा देना, कोई वृद्ध व्यक्ति रास्ता पार नहीं कर पा रहा है उन्हें पार करा देना।

भारत एक्सप्रेस के शुरु होने के बाद से से कोई सामुहिक मीटिंग नहीं हुई थी। मैंने सोच रखा था कि 15 अगस्त पर ही मीटिंग करेंगे। सबको संबोधित करेंगे। जो मुझे कहना होगा, सबको खुले मंच और आजादी के पर्व पर कहेंगे।

समझ विकसित होना

मैं कोई आध्यात्मिक गुरु नहीं हूं कि अपने साथियों को ज्ञान बांटू लेकिन इतना जरुर कहूंगा कि हम जब अपने जीवन में आगे बढ़ रहे हैं, उसमे एक बात का ध्यान रखना जरूरी है कि हमारी समझ कितनी विकसित हो रही है। समझ का विकसित होना, सभी वेदों से ऊपर की बात है जिसके अंदर एक अलग तरह का भाव-विचार, निर-छिर विवेक जग जाता है। जितने शास्त्रों को आप ने पढ़ा होगा, उसमें शिक्षा दी गई होगी चोरी, झूठ, वैभिचार नहीं करना चाहिए। इसका मतलब कि हजारों साल पहले शास्त्रों में लिखी गईं बातों से पता चलता है कि पहले के समाज में ये चीजें थीं। इसलिए साधु, ऋषि जनों ने, वेद उपनिषद लिखने वालों ने बताना चाहा कि ये हमेशा से है और ये गलत है। अगर हम बीमार होते हैं तभी दवा और डाक्टर की जरूरत पड़ती है अन्यथा कोई आवश्यकता नहीं है।

आदत, सम्मेलन और गुलामी

एक कहानी याद आ रही है- कज़ाकिस्तान में सदियों से औरतें पुरुषों से ज्यादा काम करती रही हैं। औरतों पर घर की बड़ी जिम्मेदारी होती है। बच्चों को भी देखना होता था, तो वो एक चाक (खड़िया) से बड़ा घेरा बना देती थीं। बच्चों को समझा देती थीं कि इससे बाहर नहीं जाना है।जार्ज गुर्जिएफ एक बड़े रशियन विचारक रहे, पूरा जीवन फ्रांस में रहे, उन्होंने लिखा कि मैंने बड़ी कोशिश की कजाकिस्तान के उस घेरे में जीने वाले बच्चों को वहां से निकाला जाए। जार्ज गुर्जिएफ लिखते हैं है कि इतना कोशिश करने के बाद भी इतना गहरा सम्मोहन हो गया, जो चाक के घेरे में रहने को कहा जाता था (हम लोगों को कहा जाए तो हम लोग एक मिनट में निकल जाए) लेकिन जो आदत या सम्मोहन होता है, हमें पता नहीं चलता कब हमें गुलाम बना लेती है।

अदृश्य दीवार और अनुभव

इस बात का जिक्र इसलिए कर रहा हूं कि आज स्वतंत्रता दिवस का मौका है। बहुत से हमारे मित्र नशे के घेरे में है। कोई पान मसाला खाता है, कोई सिगरेट पीता है। कहने का सिर्फ एक आशय है कि जब हम किसी चीज को मन में बुरा मानते हैं तो उससे लड़ते हैं और हार जाते है।जब आप कोई नशा छोड़ना चाहते हैं तो उससे लड़ना बंद कर दीजिए और उससे बड़ा काम करना शुरू करिए। बड़ा काम क्या है? कोई भी नशे से आप जूझ रहे है तो आप पार्क में दृढ़ता से तय करके कि आज से से दस किलोमीटर टहलूंगा, जिस दिन दस किलोमीटर टहलना शुरु कर देंगे, उस दिन से धीरे-धीरे आपकी ऊर्जा, जो उस नशे से लड़ाने में खर्च हो रही थी, धीरे-धीरे आपके जीवन से विदा हो जाएगी। जो ध्यान सिगरेट खींच रहा है उससे धीरे-धीरे आप ऊपर उठ जाएंगे।

एक चाक के घेरे बना देने पर 70 साल का आदमी बाहर नहीं निकलता, जब निकलने की कोशिश करता है तो उसे अदृश्य दीवार दिखने लगती है। आपने अंदर की अदृश्य दीवार को तोड़िए और बाहर निकलिए।

आम तौर पर हम उन बातों को ज्ञान बना लेते है जो हमारी अनुभव से गुजरी हुई नहीं रहती हैं। इस कारण से जीवन में बहुत उथल-पुथल रहता है। जब हमारे अनुभव से कोई चीज नहीं गुजरी होती है- जैसे कोई अंधा टटोलते हुए चलता है। हमारी समझ और ज्ञान से विकसित हुई कोई चीज हम करते है तो वो हमारी अपनी होती है।

गांव में जब हम छोटे थे, पढ़ाई के शुरुवाती समय में लालटेन होती थी। उसके चमकते शीशे को छूते ही हाथ जल जाती थी। हाथ का जलना उस समय में मेरा अनुभव था। उसके बाद बोध हुआ कि लालटेन को दोबारा नहीं छूना है। ठीक उसी प्रकार से मैं मानता हूं की गलतियां सबसे होती हैं।

गलती बार बार न हो

उम्र के 41 पड़ाव पार कर गया हूं। जरूरी नहीं कि 42 साल का होऊंगा तो गलतियां नहीं होंगी। गलतियां खूब करना चाहिए, उसी तरह जीना भी चाहिए लेकिन एक बात ध्यान रखना चाहिए कि एक ही गलती बार-बार न हो। अगर एक ही गलती बार-बार हो रही है तो आप समझ लीजिए की आंख तो आप की खुली हुई है लेकिन आप मुर्छा में जी रहे हैं। मुर्छा में जीने का इससे बड़ा उदाहरण है नहीं। गलतियों से बचना है तो हमें अपने आलस, तंद्रा और मुर्छा को तोड़ना है। कैसे तोड़ सकते हैं ?अपनी गलतियों को सुधार कर।

पहले जानें फिर मानें

कोई काम और ज्यादा अर्थपूर्ण कैसे हो सकता है? जब आप उसको पूरी जागृत अवस्था में ऊर्जा से करें। किसी ने किसी चीज को जी लिया है। जैसे कोई तैरना जानता है, वो अपने आधार पर बता रहा है कि इतनी दूरी पर गहरा पानी है। आपको वो बात मान लेनी चाहिए। लेकिन वहां तक तो मानना ठीक है परंतु हर बात भी मान लेते हैं। बिना जाने मान लेना एक मौलिक आदमी की निशानी नहीं है। हम लोगों को जीवन में मौलिक बनने के लिए जरूरी है कि पहले जाने फिर माने। जानने और मानने में धरती और आसमान जैसा अंतर है। इन बातों के मायने यही है कि हमारी गलत आदतों को बोध कराती हैं। जो हम कर रहे हैं इससे बेहतर कर सकते हैं, बड़ा इंसान बन सकते हैं। बड़ा इंसान बनने का अर्थ है अपने जीवन में रोज एक कदम आगे बढ़ना है। यानि गुणात्मक ऊंचाई से तात्पर्य है।

गुणात्मक ऊंचाई क्या है? रोज कोई एक नई चीज सीखें, जो हम कल नहीं जानते थे। जैसे कोई महापुरुष के जीवन की घटना का अध्धयन करें, एक नए शब्द को जानें जो कठिन या अनछुवा हो, अंग्रेजी अखबार पढ़ें। मैं आज भी एक-दो शब्द देखता हूं। मैं पंडित नहीं हूं कि हर चीजें रट ली है। हां, जानने भर का ज्ञान भगवान ने जरूर दिए है। अपने समय में अच्छे विधार्थी रहा। इस तरह से गुणात्मक ऊंचाई आती है जीवन में।

असली दुख

जो भूखे पेट रहा हो वही भूखे आदमी का दर्द समझ सकता है। मैंने अबतक के अपने जीवन में देखा है जो बहुत दुख और संत्रास में डूबा हुआ आदमी होता है या निकला हुआ आदमी होता है, वो कही न कहीं जड़ (पत्थर) हो जाता है। असली दुख को तो सुखी आदमी समझता है। वहां पर एक तुलना आ जाती है। इससे फर्क दिख जाता है दर्द के गहराई की इसको और सही समझा जाए।

जैसे एक चौराहे देखा होगा कि एक भिखारी दूसरे भिखारी को दान नहीं देता। आप लोगों में से भी किसी ने नहीं देखा होगा, बल्कि उल्टा ही होता है अगर भिखारी को मौका मिलता है तो दूसरे का कटोरा छिन लेता है। गरीबी और दुख का अनुभव दया और करुणा पैदा कर रहा होता तो सारे गरीब और सारे भिक्षा पात्र ले कर खड़े लोग इस पृथ्वी को स्वर्ग बना चुके होते।

भारत की परंपरा

एक भिखारी भी कटोरा लेकर खड़ा है और महात्मा बुध्द भी खड़े है। दोनों एक ही दशा और वक्त में खड़े है लेकिन दोनों में इतना अंतर है जितना धरती आसमान के बीच भी नहीं हो सकता। एक भिखारी कौड़ी-कौड़ी जोड़ कर सम्राट बनना चाहता है, दूसरी तरफ एक सम्राट सब छोड़ कर उतना ही इकठ्ठा करना चाहता है जितने में एक वक्त जिंदा रह सके। शायद इसलिए हर राजा बुध्द के चरणों में झुका, ये भारत की परम्परा है। भारतवर्ष ने एक ऐसा बेटा दिया लेकिन भारत में उनकी इज्जत नहीं हुई, सिर्फ पोंगा पंडितों के कारण। आज पूरा एशिया महाद्वीप झुकता है भारत के लिए तो सिर्फ बुध्द के कारण।

कृष्ण, बुध्द, मीरा,कबीर जैसे लोग भारत की धरती पर पैदा हुए हमारे लिए ये सौभाग्य की बात है। जब हम न्यूज फ्लोर पर काम करते हैं जब एक सहकर्मी के रूप में काम करते हैं। हमारी पूरी सोच ये रहे कि हम कैसे बेहतर इंसान बन सकते हैं, कैसे रोल मॉडल अपने साथी के लिए उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं।

जब मैं मुम्बई से दिल्ली आया तो लोगों ने पूछा की मुम्बई और दिल्ली में क्या अंतर लगा? मेरा उत्तर रहा कि मुम्बई में आप से कोई कंपटीशन करता है जैसे आपने अच्छा घर बनवाया तो दूसरा उससे बेहतर घर बनाकर दिखाता है। लेकिन दिल्ली में मेरा अनुभव रहा, जब आप अच्छा घर बनवाते है तो दूसरा ये सोचता है कि आपका घर कैसे गिरवा दे एमसीडी में शिकायत करके। ये कुछ कमी है हमारे समाज में। मुझे लगता है कि हम सब एक दूसरे को बदलने की जगह जहां पर हम हैं वहीं से स्वयं बदले।

बुद्धि और समझ की कसौटी

बुद्ध और महावीर ने कहा- दीपक स्वयं बनो, अपना पथ-प्रदर्शक अपने से बनाएं। बुद्ध की एक बात बहुत सही लगती है बुद्ध ने कहा कि मेरी बात तुम इसलिए न मानो कि जो मैं कह रहा हूं वही सही है, मेरा बात तुम इसलिए भी मत मानो की यही होता आया है, मेरी बात इसलिए भी मत मानो कि मैंने गेरुवा पहन रखा है या घर-बार छोड़ रखा है। मेरी बात मानना चाहते हो तो सिर्फ इसलिए मानो कि अगर तुम्हारी बुध्दि और समझ की कसौटी पर सही लगती है तो मानना नहीं तो मेरी बात मानने की कोई जरूरत नहीं।

आप लोग भी इसी तरह से अपने जीवन में इस जिद्द पर मत रुकें रहिए कि मैं जो कह रहा हूं वही सही है, मेरी बात मान क्यों नहीं रहा है कि सीनियर हूं। सच्चा सम्मान सीनियर होने से आप अर्जित नहीं कर सकते, सच्चा सम्मान वही व्यक्ति कर सकता है जो अपने जूनियर से भी विनम्रता से बात करे, उसे समझने की कोशिश करे।

श्रीकृष्ण ने गीता में कहा कि विनम्रता के बाणों को अहंकार की कोई ढाल रोक नहीं सकती।महाभारत और रामायण सभी ने देखा है। दुर्योधन बहुत अताताई था, राज्य का लोभी था लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवो के लिए सिर्फ पांच गांव मांगा था। पांडवों को भी राज्य पाने का लोभ था। भगवान श्रीकृष्ण के धर्म स्थापना के बाद वो धर्म कितना स्थिर रहा अगर धर्म सदा के लिए स्थिर आया होता (तो महाभारत के समय में जितने वेद-संघिताएं, उपनिषद लिखे गए सब में धर्म को दोबार से स्थापित करने के लिए बार-बार बात कही गई) इसका मतलब भगवान श्रीकृष्ण के पृथ्वी पर उतरने के बाद भी धर्म स्थापित नहीं हुआ।और आज भी समाज में उतनी ही कुरीतियां और वैभिचार है जो हमारे नैतिक विचारों के पहरेदारी करते है। धर्मशास्त्र आज भी प्रसांगिक होने चाहिए।

(15 अगस्त 2023 को स्वतंत्रता दिवस संबोधन में)
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