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मुकम्मल इंसान बनने के लिए बहुत कुछ त्यागना होता है

जब मैं छठी क्लास में था तब पिताजी बीबीसी रेडियो सुना करते थे, उस समय मैं गांव रहता था। उस दौर में विनाका गीतमाला आती थी, बाद में शिवाका गीतमाला हो गई। अमीन सयानी साहब गीतों के पायदान बताया करते थे। पिताजी के साथ मैं भी बीबीसी सुनता। सुनते-सुनते मुझे भी रुचि आने लगी।

पत्रकार बनने की शुरुआत

मैंने तय किया कि जैसा रेडियो में बोलते हैं वैसे एक दिन मैं भी बोलूंगा। 1995 में मैट्रिकुलेशन किया, उस समय यूपी बोर्ड टफेस्ट बोर्ड होता था। उस समय टॉप पच्चास में मैंने भी स्कोर किया। गांव में धारणा बनी रहती थी कि लड़का सिविल सेवा में जाए। लोग पूछते थे कि तुम क्या करना चाहते हो तो मैं शर्म के मारे बताता नहीं था कि मैं पत्रकार बनना चाहता हूं। इस सवाल पर चुप रह जाता था।धीरे-धीरे समय आया जब मैंने बीबीसी के नोट्स बनाने शुरु किए (अपनी जर्नलिज्म यात्रा की छोटी सी बात बता रहा हूं) कहीं भी रहता लेकिन बीबीसी की सभा नहीं छोड़ता था। साथ में पेन और रजिस्टर लेके बैठ जाता था और नोट्स बनाता। उस समय उसके साप्ताहिक प्रोग्राम थे। वो बहुत ही ज्ञान से भरे हुए होते थे। मेरे गांव के लड़के जो सिविल सेवा की तैयारियां करते थे। और जब छुट्टियों में बाहर के लड़के आते थे तो उनसे खूब बहस होती। उनको हरा देता था। फिर भी कुछ भ्रम रहा की लड़का सही लाइन पर जा रहा है। सिविल सेवा जरूर करेगा। मेरे मन में ये बात हमेशा बनी रहती थी, कुछ भी करना है ये काम नहीं करना है।


मुझे 10 से 5 बजे वाली नौकरी नहीं करनी। ये संकल्प मन में बना रहा। मां के पैर छुए तो मां रोने लगी, पिताजी सख्त थे लेकिन बाद में पता चला की वो भी रो रहे थे। इसके साथ ही मैंने घर छोड़ा। अपने स्कालरशिप के 1500 रुपये के सहारे लखनऊ पहुंचा। जब मैं लखनऊ में कुछ जमा तो गांव में टेलीफोन लगवाया। अपने घर में मां से बात करने के लिए (गाजीपुर से 30 किलोमीटर टेलीफोन की लंबी लाईन खिंचवाई अपने घर तक)। जनवरी 1997 की बात है।

पहली नौकरी और बंबई

सफर आसान नहीं था। हायर सेकेंडरी केकेबी कॉलेज लखनऊ से पास की और सहारा में नौकरी करने लगा। उस समय ग्रेजुएशन प्रथम में गया था। एक साल, दो साल जुझा लेकिन मैं 1999 में बम्बई का सबसे यंगेस्ट चीफ ऑफ ब्यूरो नियुक्त हुआ राष्ट्रीय सहारा का।

1999 में जब बंबई रेलवे स्टेशन पर पहुंचा तो किसी स्टेशन पर उतनी भीड़ पहली बार देखी अपने जीवन में। सहम के खड़ा हो गया एक किनारे कुछ देर के लिए...मुझे स्टेशन से गेस्ट हाउस जाना था। मुझे लेने के लिए कम्पनी से गाड़ी आई हुई थी, मैंने उससे कहा कि तुम सीधे आफिस ले चलो। पहले ही दिन से अपना काम शुरु कर दिया।

प्रगति की रफ्तार

अपनी शुरुवात की कहानी इसलिए सुनाई कि तब और अब के समय में बहुत एक लंबा फासला बीत चुका है। जितनी तरक्की दुनिया ने पिछले तीन लाख साल में की उतनी तरक्की अगले तीन हजार साल में हुई और जितनी तरक्की दुनिया को बेहतर बनाने के लिए तीन हजार सालों में हुई उतनी तरक्की तीन सौ सालों में हुई और जब तीन सौ साल आए तब इंडस्ट्रियल रेवोल्यूशन आ चुका था, अंग्रेज भी भारत आ चुके थे।

उसके बाद जो तरक्की तीन सौ सालों में नहीं हुई वो अब तीस सालों में हो रही है।

संघर्ष से 25-30 साल पहले बिताया वो दायरा अब कुछ महीनों में होता है। जब मेरा जन्म हुआ था तो 80 प्रतिशत बच्चों को कोई न कोई बीमारी होती थी। इतनी मेडिकेटेड दुनिया नहीं थी। आज बच्चा कनसीव करता है और जब उसकी डिलेवरी होती है तो वो एक फुली मेडिकेटेड दुनिया में पैदा होता है। अब तो मेडिकल सांइस इतनी तरक्की कर चुका है कि बच्चे की आंख का कलर कैसा होना चाहिए, बच्चें की आयु 80 साल की होनी ही चाहिए, अगर वो आगे जा के नशे नहीं करता तो भी निश्चित किया जा सकता है। इस तरीके के असंभावित प्रगति चिकित्सा के क्षेत्र सोच से परे थी, हमलोगों के पैदा होने समय में।

झोला छाप पत्रकार नहीं बनना

सजल सर के साथ जब मैं बैठा तो नवीन ने कहा कि एकलौता पत्रकार देख रहा हूं जो पत्रकार कम कार्पोरेट ज्यादा दिख रहा है। ये भी एक लंबी लड़ाई थी, जब मैं पत्रकारिता में आया था, उस समय मैंने ये तय कर लिया था कि झोला छाप पत्रकार नहीं बनना है क्योंकि गांव में ये ताना दिया गया था कि पत्रकार बन कर, झोला लेकर चलेगा और दो हजार रुपये कमाएगा। वही मेरी लड़ाई थी, पहले ही दिन से मैं वो पत्रकार बनूंगा, जो छोला छाप नहीं रहेगा। वो बनूंगा जो चार्टेड प्लेनस में उड़ेगा और मेबैक और रोल्स रॉयस में घूमेगा। मैंने वो सपने को पूरा किया। हां, ये जरूर है कि मेरा बड़ी आलोचना हुई। मेरा ये मानना है कि पत्रकारिता करने के लिए कपड़े पहन कर आपको पत्रकार की एक धारणा को जीना जरूरी नहीं है। आपका ट्रांसफार्मेशन अंदर से होना चाहिए। अगर अंदर से बदलाव नहीं है तो बाहर से जितना भी मोटा खादी का कपड़ा पहन लें इससे आप बेहतर इंसान या पत्रकार नहीं बन जाते हैं।

हल्का चित ऊंचाई देता है

एक बुढ़ी औरत जोर-जोर से चिल्ला रही थी कि मेरे घर में आग लगी है बुझाओ, मैं मर रही हूं बचाओ। आस-पास के लोग जब लोग पहुंचे तो देखकर हैरान हुए। कहीं आग थी ही नहीं, जब लोगों ने पूछा कि की दादी आग कहां लगी है? वो औरत हंस कर बोली, आग तुम सब के अंदर भी लगी है ये दिख नहीं रहा है तुम सभी को। किसी ने कहा कि बताएं भीतर कहां लगी है? दादी ने कहा कि तुम सभी के मन में लगी है। बाहर की आग को तो पानी और विज्ञान के किसी प्रयोग के सहारे बुझा सकते हो लेकिन मन के अंदर जो आग लगी है उसको कैसे बुझाओगे।

जो हमारे मन के भीतर की आग है ईर्ष्या, क्लेश लेकर जी रहे हैं।आप ने देखा होगा कि जिस गुब्बारे को हवा से फुलाते हैं, उसको बांध के रखते है वो आसमान में क्यों नहीं उड़ता? क्योंकि आप के मुंह से निकली हवा का वजन भी इतना ही होता है कि उसको उड़ने नहीं देता। जब उसमें हाईड्रोजन या हीलियम भरते हैं तब वो उड़ने लगता है क्योंकि जो गुब्बारे का चित वो हल्का हो जाता है। तितलियों और पक्षियों की तरह आसमान में उड़ना चाहते है तो आप को भी अपना चित हल्का करना पड़ेगा। अगर आप दैनिक जीवन में छोटी-छोटी बातों को लेकर ग्रज पालते हैं, घर में, परिवार में, समाज में, आप कभी अपने को बड़ा काम करने को तैयार नहीं करते, आप अपने अंदर छोटा सा शत्रु खुद पैदा कर लेते हैं, अपने को नीचे गिराने के लिए दूसरे की जरूरत नहीं है। धीरे-धीरे आप खुद गिरने लगते हैं। इसलिए अपने मन के अंदर की जो आग है, उसको अध्यात्म की बाल्टियों से उसको बुझाएं।

गौरवपूर्ण क्षण

आज भारत चंद्रयान 3 को भेजने के बाद गौरव अनुभव कर रहा है। सबसे अच्छी बात ये है कि अमेरिका, रुस, चीन ने चन्द्रमा के उत्तरी ध्रुव पर अपने यान उतारे और भारत ने जो प्रयास किया था वो दक्षिणी ध्रुव पर उतारने की कोशिश की थी। उसमें सफलता नहीं मिली। लेकिन जो सफलता कल मिली है वो भारत की पहली बार उतरा है, ये वाकई गौरव की बात है। इसका पूरा श्रेय इसरो के वैज्ञानिकों और भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को दिया जाना चाहिए। भारत ने स्पेस टेक्नोलॉजी का झंड़ा गाड़ा बाकि दुनिया के जो चंद्रयान बने और उतरे उनमें जो खर्च लगा, उसकी तुलना में भारत ने बहुत बढ़िया और किफायती खर्च पर अपने चंद्रयान को भेजा है। इससे हमारे वैज्ञानिकों के टेक्नोलॉजी की समझ और उसको कैसे बेहतर से बेहतर तरीके से किया जा सकता है इसकी समझ से दो बातों का ठीक-ठीक पता चलता है।

तिब्बत के लामा

पत्रकारिता करने से पहले क्या जरूरी है कि आप एक बेहतर इंसान बने और मजबूत, निर्भीक इंसान बने। बेहतर इंसान बनाने के लिए कोई किताब तो है नहीं की तमीज और अच्छाइयों को समझा दे। बेहतर इंसान कैसे बनते है इस पर किताब पढ़ रहा था। तिब्बत में जो लामा तैयार किए जाते हैं, वो कैसे तैयार किए जाते हैं, वो कैसे मजबूत इंसान बनते है। उनकी अध्यात्मिक शक्ति इतनी प्रबल होती है कि माइनस डिग्री तापमान में अपने शरीर से पसीना निकाल देते हैं।उन लामा में से एक जो सभी में श्रेष्ठ होता है वो तिब्बत का धर्म गुरु चुना जाता है।

मैं एक साधारण लांबा की कहानी बता रहा हूं कि हम लोग अपने जीवन को आरामतलब होकर जीना चाहते हैं और इसको अच्छा समझा जाता है लेकिन लामा में अध्यात्मिक गुरु तैयार किया जाता है तो कैसे? कहानी कुछ इस प्रकार है कि बच्चे को लामा की ट्रेनिंग के लिए जाना होता है, उसके पिता बच्चे के साथ बात करते हैं। साथ में मां भी थी, पांच साल का छोटा बच्चा होता है, उसके पिता ये कहते है कि तुम्हें गुरु के आश्रम जाना है। मैं चाहता हूं कि तुम्हारे आंखों में आंसू ना आएं, जब तुम घर से जा रहे होगे, तुम्हें पांच साल की ट्रेनिंग में रहोगे, इस बीच हम दोनों से मिलना नहीं होगा, अब अगले पांच साल गुरु के पास रहना है। जब तुम जा रहे होगे तो पीछे पलट के नहीं देखना है। अगर तुमने पलट कर देख लिया तो जो पांच सालों में हमको मिलना है वो कभी नहीं हो पाएगा। ये बात हम सबको बड़ी हैरानी सी लगती है लेकिन तिब्बत में तैयार किए जाते हैं। सुबह का वक्त आता है बच्चे को विदा किया जाता है। पिता कहीं छुप कर देख रहे होते हैं कि बच्चा पलट के देख तो नहीं रहा है। जब गुरु के आश्रम में जाता है बच्चा तो पहले बच्चे की धैर्य की परीक्षा ली जाती है। गुरु उससे बोलते हैं कि आश्रम के बाहर तुमको आठ घंटे ध्यान में रहना है। आंख खुलनी नहीं चाहिए। पांच साल के बच्चें से कितनी परिपक्वता की उम्मीद की जा सकती है लेकिन वहां बेहतर इंसान बनाने की ट्रेनिंग दी जाती है। उससे इतनी परिपक्वता की उम्मीद की जाती है और वो करता भी है। उसके बाद गुरुकुल में बच्चा दाखिल होता है। ट्रेनिंग चालू होती है।

बच्चे और संत

अब हमलोग अपनी जीवन से तुलना करें कि हम लोग बेहतर इंसान बनने के लिए क्या-क्या करते है? कहा जाता है नागरिकता की पहली पाठशाला परिवार होता है। हम जो कुछ भी परिवार से सिखते हैं, वही हमारी पहचान बनती है।

महात्मा बुद्ध ने कहा कि आप तब-तक एक मुकम्मल इंसान या पूरे इंसान नहीं बनते जब तक आप माता-पिता के आदतों की हत्या नहीं कर देते। बुरे मां-बाप से मुक्ति पाना छोड़ना, बड़ा आसान है लेकिन आप के मां-बाप बहुत अच्छे हो, उनसे मुक्ति पाना छोड़ना बड़ा मुश्किल है। बात बुद्ध ने कही, वही बात ईसा मसीह ने कह कि जो बच्चे या लोग मेरे असली शिष्य नहीं बन सकते जो अपने मां-बाप से ईर्ष्या न करने लगे। बुद्ध का कहना है कि जब मां-बाप की बनाई दुनिया को छोड़ कर आप अपनी एक नई दुनिया बनाते है जब आप अपने मां-बाप की सिखाई आदतों को छोड़ देते है। यानि सहारा मां-बाप देते है और वो कभी न कभी छुटना होता है। जैसे बच्चे एक उम्र तक खिलौने से खेलता है, एक उम्र के बाद खिलौनों से खेलना छोड़ देता है। उससे कोई छिनता नहीं है स्वत: ही छूट जाता है। किसी चीज को छोड़ने और छूट जाने में बड़ा अंतर है। किसी चीज को छोड़ने में बड़ी तकलीफ होती है और कोई चीज छूट जाती है वो हमारा चुनाव होता है। दुनिया के सभी बच्चों में दो गुण समान पाए जाते हैं। पहला बिना बात के खुश रहता है और दूसरा बिना काम के व्यस्त रहता है। और यही गुण संतो में होता है। आज हम सभी की स्थिती है कि पांच मिनट हाथ से मोबाइल ले लिया जाए तो हम क्या करें, किताब पढ़ने को बैठे तो नींद आने लगती है यानि हमारे मन के अंदर जो ध्यान होना चाहिए वो बहुत कमजोर है।

एक उदाहरण के तौर पर मान लीजिए, किसी लड़के को अपनी गर्लफ्रेंड को रिसीव करने जाना है। ट्रेन रात के 2 बजे आ रही है, जो एनर्जी उत्साह और जिस तरह से मन में उमंग रहता है वो एक अलग तरह की शक्ति होती है। और वही पता चले की दादाजी को रिसीव करने जाना है तो उसको नींद आने लगती है। पर्याय ये है कि हम काम वही करना चाहते हैं, जिसमें हमें खुशी मिलती है। कैसे हम अपने काम को खुशी बनाए, ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है कि हम अपने काम को खुशी बनाकर जी पाए लगातार ऐसा क्यों नहीं हो पाता इसलिए नहीं हो पाता की हमारे ऊपर संस्कारों की बताई गई चीजों का इतना गहरा बोझ है की हम दबे हुए है। आप जरा सोच कर देखना कि आपने क्या अर्जित किया है। आपका धर्म पाया हुआ है मां बाप से मिला है। क्या आप ने सभी धर्मों का अध्ययन किया है? क्या आपके अध्ययन से ये समझ में आ रहा कि कौन सा धर्म सही है? बुद्ध या नानक ने जो सबसे मौलिक धर्म है जो बताता है कि संसार में ही रहना है कहीं दूर तपस्या या साधना करने नहीं जाना है। घर में रहते हुए भी संत बना जा सकता है।

हालांकि मैं 2019 के बाद किसी मंदिर नहीं गया। बीच में एक बार जाना पड़ा, जब भारत एक्सप्रेस चैनल की घोषणा करनी थी। एक मित्र के ज्यादा कहने पर 24 अक्टूबर 2022 को गया था। कभी-कभी दूसरों का मन रखने के लिए भी कर देना चाहिए। इसके पीछे अपने मन में सोचा जिस धर्म के लिए दुनिया में इतनी लड़ाई है। धर्म के हिसाब से कोई जीना नहीं चाहता और जो लड़ाई है हमारे मन से उपजा हुआ या बोध से उपजा हुआ नहीं है‌। वो क्रांति नहीं है वो क्रांति बुद्ध में घटी, महावीर में घटी, गांधी में घटी, भगत सिंह में घटी, सुभाष चंद्र बोस में घटी, मीरा में घटी, कबीर में घटी, रैदास में घटी, पूरी दुनिया ने उनको समझा वो आगे चले और पीछे चले।

( 24 अगस्त 2023 को APEEJAY इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन के दिल्ली स्थित द्वारका कैंपस में इंडस्ट्री कम ओरिएंटेशन 2023 कार्यक्रम में )
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